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मोटर अधिनियम पर कुछ सच्चाई, सुधार के लिए या कंगाल सरकार को उभार ने के लिए


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Real Truth For New Motor Vehicle Act By Central Government

भानू मिश्रा की एक कटु सत्य पर सरकार से बहस जरूरी
1 क्या मोटर अधिनियम कानून आवश्यक है या आम जनता की मूलभूत जरूरतें
2 क्या मोटर अधिनियम लागू करने के पहले जनता की स्थिति का अवलोकन करना जरूरी नही था?

आगे और भी सवाल है जिन पर सरकार से बहस करना आवश्यक इसलिए है कि क्या आम जनता की जेब जुर्माने की रकम पूरा करने मे सछम है बीस से चालीस हजार तक वेतन भोगी की औकात अगर किसी कारण वश आई तो उसके महीने का बजट हो जायेगा खराब तो जिम्मेवारी होगी किसकी?

भारत सरकार के हालिया निर्णय केंद्रीय मोटर अधिनियम कानून में हुए संशोधन के बाबत
देश स्तर पर बहस  का बाजार गर्म है।
कि क्या वास्तव में भारतीय जनमानस के लिए इतना गर्म जुर्माना जायज है ।
जिस भारत की जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग अभी लाल कार्ड पर अपना जीवन जीने को मजबूर है.
जिसे बिजली का बिल चुकाना, बच्चों की फीस भरना,
यहां तक कि खाना बनाने के लिए गैस सिलेंडर में भी सब्सिडी की जरूरत है,
राशन सब्सिडी, गैस सब्सिडी की बिजली व्यवस्था कुछ खास लोगों को छोड़ दिया जाए तो सरकार चाहती है
कि खिचड़ी खाओ और प्राइमरी स्कूल में अपने बच्चों का नाम लिखाओ
लेकिन वह सरकार भूल चुकी देश का साधारण आदमी जो किसी जतन से एक पुरानी मोटरसाइकिल से अपनी छोटी मोटी जरूरत है जैसे तैसे पूरी कर लेता है उसे हर छोटी मोटी बात पर 5000 से लेकर 10000 तक जुर्माने की जद में रखना कितना न्याय संगत है? अगर जुर्माने की राशि से ही अपराध नियंत्रण की संभावना है तो हत्या लूट और बलात्कार करने वाले लोगों को सरेआम तत्काल फांसी और उनकी संपूर्ण संपत्ति जप्त कर लेने की हिम्मत सरकार में क्यों नहीं है?

कारण है सदन में अपराधियों की भरमार है हिम्मत तो जुटाना होगा
थाने के रजिस्टर में अपराध किस लिए है।
जब मुलजिमो की फौज ही सरकार बनाते हैं
इस पर चुनाव आयोग को कमर कसना होगा
और बड़े-बड़े घातक निर्णय लेने वाली मोदी सरकार को नए सिरे से इस पर भी पहल करना ही होगा

सुधार के नाम पर जुर्माना करके इतनी बड़ी आर्थिक सजा लोग बाग या सरकारी मशीनरी के कर्ताधर्ता जिन के हवाले से इसे वसूला जाना है,
क्या वह इसे बेहतर मान रहे हैं ?

सरकार के निर्णय का स्वागत करना आवाम की मजबूरी है। लेकिन आवाम जब एक चाय वाले को प्रधानमंत्री चुनती हैं
तो उसकी अभिलाषा होती है कि वह हीरे वालों की तरह ना होकर, बल्कि लोकमानस के दर्द को समझने वाला होगा।
विदेश घूम कर
विदेशी तर्ज पर कानून व्यवस्था लगाने के पहले हमें अपने संसाधन
हमारे देश के लोगों की व्यक्तिगत आर्थिक आय,
सरकारी मशीनरी,
सड़कों के हालात,
और लोगों के मनोविज्ञान को समझना बेहद जरूरी है
इसी के साथ बिना बहस के केवल इतना कहना भी जायज है कि
रेलवे की एक बोगी में 72 सीट होती है। जबकि उस में तकरीबन डेढ़ सौ से 200  मुसाफिर धक्का मुक्की करके सफर करते हैं

रिजर्वेशन क्लास के कंपार्टमेंट में भी अमूमन यही व्यवस्था देखने को मिलती है ।
महानगरों से कितने जद्दोजहद के साथ

अपने गांव देश की ओर आने वाले लोग बाग, गुजरात दिल्ली और मुंबई से चलने वाले रेलयात्री लैट्रिन में बैठकर अपना जिंदगी भर ना भूलने वाला सफर अपने जनपद तक काटते हैं
एक बोगी में 72 यात्रियों के बाद सफर कराने वाली रेलवे प्रशासन पर कितना जुर्माना सुनिश्चित किया जाएगा?
रोडवेज की बसों की भेड़ बकरियों की तरह लोग भरे होते हैं
रोडवेज पर जुर्माना कैसे व कितना सुनिश्चित करेगी सरकार?
कैदियों को अदालत तक लाने के लिए पुलिस की जिन गाड़ियों में मच्छरों की तरह भरकर कैदी ढोऐ जाते हैं।

पुलिस के ऐसे वाहनों पर कितना जुर्माना लगाया जा सकेगा?
और उनको जुर्माना काटने की हिम्मत कौन जुटाएगा।
लोक सेवा के लिए लगाए गए सौ नंबर, 108 और 102 नंबर के वाहनों के कागजात यानी फिटनेस कितने दुरुस्त हैं?

एक बार सरकार को आत्म अवलोकन करने की प्रबल आवश्यकता है।
सरकार अपने संसाधनों पर पहले सुधारवादी नीति के तर्ज पर जुर्माना लगा कर दिखाऐ।
तो लोकमानस इस जुर्माने को खुशी-खुशी सहने को तैयार होगा।
नहीं तो केवल ये कहा जा सकता है कि आम आवाम के ऊपर तानाशाही करके,
किसी भी युग में, किसी भी शासक का भला नहीं हुआ है।
सरकार को अपने इस
जुर्माना बाज वाले छवि से बाहर निकलने मे परहेज नहीं करना चाहिए।
जैसा कि वे जी एस टी के मामले में कर चुके हैं.
इलेक्शन के मद्देनजर ही सही उन्हें जीएसटी कम कर लेना पड़ा था।
क्या भारत में फिर इलेक्शन नहीं आएगा?
इतना तगड़ा जुर्माना भर के आवाम के अंदर क्या सत्ता पक्ष के लिए मोहब्बत पैदा हो सकती है?
देश मंदी के दौर से गुजर रहा है तो इसकी भरपाई के लिए
उन्हें अपने सरकारी संसाधनों में कटौती करनी चाहिए,
निजीकरण और जुर्माने का संयुक्त फार्मूला अपनाकर, आम आवाम के ऊपर बोझ डालने से बचना चाहिए।
बेरोजगारी और महंगाई के चरमोत्कर्ष पर यह जुर्माना कोढ़ में खाज नहीं तो क्या है?
वे राज्य जो सरकार के जुर्मानागीरी वाले इस निर्णय को मानने को तैयार नहीं है, उस पर हुजूर का क्या ख्याल है?


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